मनीषा शर्मा, अजमेर। दरगाह दीवान जैनुअल आबेदीन ने इस मामले पर बयान देते हुए कहा कि ख्वाजा साहब की दरगाह का इतिहास लगभग 800 साल पुराना है। उन्होंने दावा किया कि जब गरीब नवाज (ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती) अजमेर पहुंचे, तो वह क्षेत्र पूरी तरह कच्चा था। उनके अनुसार, “गरीब नवाज की कब्र 150 सालों तक कच्ची रही। उस समय वहां कोई पक्का निर्माण नहीं था। ऐसे में उस जगह मंदिर होने का दावा पूरी तरह असंभव है।” उन्होंने आगे कहा कि पूजा स्थल अधिनियम 1991 के तहत, 15 अगस्त 1947 को भारत में जितने भी धार्मिक स्थल थे, उन्हें उसी स्थिति में रखा जाना चाहिए। इस कानून के उल्लंघन पर सरकार को नोटिस देना जरूरी है, जो इस मामले में नहीं किया गया। साथ ही, उन्होंने सवाल उठाया कि याचिका में ख्वाजा साहब के वंशजों को पक्ष क्यों नहीं बनाया गया।
पूजा स्थल अधिनियम 1991 का उल्लेख
जैनुअल आबेदीन ने पूजा स्थल अधिनियम का जिक्र करते हुए कहा कि इस कानून के तहत धार्मिक स्थलों की यथास्थिति बनाए रखना अनिवार्य है। इस अधिनियम में यह स्पष्ट है कि 15 अगस्त 1947 के बाद किसी धार्मिक स्थल के स्वरूप में बदलाव नहीं किया जा सकता। दरगाह दीवान ने इसे कोर्ट में चुनौती देने की बात कही और कहा कि इस मुद्दे पर कानूनी रूप से जवाब दिया जाएगा।
दरगाह का ऐतिहासिक विवरण
दरगाह दीवान ने दरगाह के ऐतिहासिक प्रमाणों का हवाला देते हुए बताया:
- 1950 में दरगाह पर आयोग की रिपोर्ट:
भारत सरकार ने 1950 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के सिटिंग जज गुलाम हसन की अध्यक्षता में एक आयोग बनाया था। इस आयोग ने दरगाह की संपत्ति और प्रशासनिक व्यवस्था की जांच की और रिपोर्ट पेश की। रिपोर्ट में मंदिर होने का कोई उल्लेख नहीं है।- 1829 में अजमेर कमांडर की रिपोर्ट:
अजमेर मेरवाड़ा राज्य के कमांडर ने 1829 में दरगाह की संपत्ति और संरचना पर विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी। इसमें मंदिर होने का कोई प्रमाण नहीं मिला।- जेम्स टॉड की किताब:
कर्नल जेम्स टॉड ने अपनी किताब में दरगाह के महत्व को दर्शाते हुए लिखा कि “यह एक ऐसी कब्र है, जो लोगों के दिलों पर राज करती है।”- 1716 की एनसाइक्लोपीडिया मैट्रिक:
इस किताब में दरगाह का पूरा इतिहास दर्ज है, जिसमें मंदिर का उल्लेख नहीं मिलता।- सुप्रीम कोर्ट का 1961 का निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने 1961 में अपने फैसले में दरगाह के इतिहास को स्पष्ट किया और मंदिर के दावे को खारिज किया।अंजुमन दरगाह कमेटी का पक्ष
दरगाह कमेटी के सचिव सरवर चिश्ती ने कहा कि ख्वाजा साहब की दरगाह एक आध्यात्मिक स्थल है। उन्होंने पूजा स्थल अधिनियम का पालन करने की बात करते हुए कहा कि “हर धार्मिक स्थान पर केस लगाना सही नहीं है।” चिश्ती ने इसे सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने की कोशिश बताया।
विष्णु गुप्ता के दावे और उनका आधार
हिंदू सेना के अध्यक्ष विष्णु गुप्ता ने दावा किया है कि उनके पास ऐसे कई सबूत हैं, जो यह साबित करते हैं कि दरगाह स्थल पर पहले संकट मोचन महादेव का मंदिर था। उन्होंने इतिहासकार हरबिलास शारदा की किताब का हवाला दिया, जिसमें लिखा है कि यह स्थान पहले हिंदू धार्मिक स्थल था। हालांकि, दरगाह दीवान और अंजुमन कमेटी ने इन दावों को निराधार बताया है और कहा है कि हरबिलास शारदा इतिहासकार नहीं थे। उनकी किताब में जो लिखा है, वह केवल “ऐसा कहा जाता है” और “ऐसा सुना जाता है” के आधार पर है।
धार्मिक और राजनीतिक प्रतिक्रिया
इस विवाद पर भाजपा और कांग्रेस के नेताओं के बयान भी सामने आए हैं। जहां भाजपा के कुछ नेताओं ने याचिका का समर्थन किया, वहीं कांग्रेस ने इसे सांप्रदायिक विभाजन की राजनीति करार दिया।
अजमेर में ख्वाजा साहब की दरगाह पर शिव मंदिर होने का दावा न केवल ऐतिहासिक बल्कि कानूनी रूप से भी एक जटिल मुद्दा बन गया है। पूजा स्थल अधिनियम 1991 और ऐतिहासिक दस्तावेज इस मामले को और पेचीदा बनाते हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि कोर्ट इस मामले में क्या निर्णय लेता है। इस विवाद को शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाने और सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने की आवश्यकता है। दरगाह दीवान और अंजुमन कमेटी का कहना है कि यह मामला केवल धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि ऐतिहासिक साक्ष्यों और कानूनी प्रक्रियाओं पर निर्भर करता है।