भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गिनी-चुनी महान महिला सेनानियों में भारत कोकिला सरोजनी नायडू का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। वे ऐसी वीरांगना थी जिन्होंने अंग्रेजों की गोलियां, लाठी-डण्डों की बौछारों को बड़ी बहादूरी से झेला और सीना तानकर समर में डटी रहीं। उनकी निडरता और बुलंद आवाज के साथ उनकी वाककला का लोहा ब्रिटिश हुकूमत ने भी स्वीकार किया था। उनकी इन्हीं पुरुषार्थ विशेषताओं का देखते हुए उन्हे भारत कोकिला के नाम से पुकारा गया।
सरोजनी नायडू अपनी परिवार की एक शांत और व्यवस्थित रही जिन्दगी से मुंह मोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ी थीं। उन्हें ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी गहरे आत्मा तक कचोटने लगी थी। वहीं महात्मा गांधी के देश भ्रमण के दौरान दिये जा रहे व्याख्यानों ने उन पर गहरा प्रभाव डाला। वे अपना घरबार छोड़कर उनके कंधे से कंधा मिलाकर स्वतंत्रता संग्राम में योद्धा की भांति शामिल हो गई। सन् 1930 के 12 मार्च को अंग्रेजों के हाथ से नमक बनाने का एकाधिकार हटाने के नमक कानून तोड़ने का शंखनाद किया गया। इस तिथि को महात्मा गांधी के नेतृत्व में सरोजनी नायडू व सतहत्तर सहयोगियों ने डांडी की पैदल यात्रा प्रारंभ की। 6 अप्रेल 1930 को निडर और सेनानी सरोजनी नायडू व गांधीजी ने नमक कानून तोड़ा। चूंकि नमक के उत्पादन पर सरकार का एकाधिकार था, इसलिये किसी के लिये भी नमक बनाना गैर कानूनी था। समुद्र के पानी के वाष्पीकरण के बाद बने नमक को उठाकर सरोजनी नायडू ने गांधी के साथ सरकारी कानून को तोड़ा। यह कानून तोड़ने पर उन्हें असंख्य लाठियों की बौछारों का सामना करना पड़ा। किन्तु ..फिर भी उन्होंने उफ् तक नहीं की।
ब्रिटिश हुकूमत की अन्यायपूर्ण कार्यवाही के विरोध में सारे देश मे सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हो गया। धरवासा में सरोजनी नायडू ने इसी दौरान नमक के सरकारी डिपो तक सत्याग्रहियों की यात्रा का नेतृत्व किया। उनकी इस यात्रा में ब्रिटिश पुलिस ने बर्बर लाठी चार्ज कर दिया। जिसमें तीन सौ से ज्यादा सत्याग्रही घायल हो गये ,एवं दो सत्याग्रहियों को पुलिस ने मार डाला। सरोजनी नायडू भी इस घटना से जख्मी हो गई। अंग्रेजों के इस अत्याचारपूर्ण कार्यवाही के विरोध में देश भर में प्रदर्शन, हड़ताल एवं बहिष्कार (विदेश वस्तु) होने लगा। इस बहिष्कार में लाखों लोगों सहित बड़ी संख्या में महिलाओं ने भी आंदोलन में हिस्सा लिया। सरोजनी नायडू के जोशीले भाषणों में इतना तेज था कि महिलाओं में एक जुनून सा पैदा हो गया था। जिसकी वजह से भी इस आंदोलन में चौका बर्तन छोड़कर वे सामने आ डटीं थीं।
सरोजनी नायडू एक प्रसिद्ध कवयित्री भी थीं। यह शायद कुछ लोगों को ही ज्ञात होगा। उनकी रचनायें अभी भी संग्रहालय मे सुरक्षित है। सरोजनी नायडू कांग्रेस की एक प्रमुख नेता थी। उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने अनेक सोपान तय किए। एक समय ऐसा भी आया कि उन्हें कांग्रेस की अध्यक्षता भी सौंपी गई जिसे उन्होंने बड़ी कुशलता से सम्हाला।
सन् 1944 की बात है। जेल से छूटने के बाद स्वास्थ्य सुधार के लिये गांधी जी बम्बई जूहू में एक मित्र के घर पर ठहरे हुए थे। उनके दर्शनों के लिये सुबह से शाम तक जनता की भीड़ लगी रहती। पर डाक्टरों की सलाह थी कि गांधीजी को ज्यादा लोगों से न मिलाया जाये। इसलिये श्रीमती सरोजनी नायडू ने यह कार्य अपने हाथ में ले लिया। वे गांधी जी के कमरे के बाहर दरवाजे पर बैठी रहतीं ,और उनसे किसी को मिलने नहीं देती थीं। एक दिन एक बालक सवेरे-सवेरे- आ गया और दिन भर दरवाजे पर बैठा रहा और गांधी जी के दर्शन के लिये जिद करता रहा। अंत में उसके बाल हठ के सामने गांधी और सरोजनी जी को हार माननी पड़ी, और उसे भीतर आने की अनुमति देनी पड़ी।
श्रीमती सरोजनी नायडू महात्मा गांधी की परिचारिका, सखी, सलाहकार भी थीं। गांधीजी के अनेक कार्यों में उनकी सहमति एवं सलाह का भी समावेश होता था। स्वयं गांधी यह जानते कि श्रीमती सरोजनी नायडू जैसी महिला भारत के स्वतंत्रता के लिये कितनी महत्तवपूर्ण कड़ी थीं। इसीलिये उन्होंने सरोजनी नायडू को हमेशा उचित अवसर प्रदान किया। श्रीमती सरोजनी नायडू ने भी कुशलता और कर्मठता के साथ अपने दायित्वों को पूरी ईमानदारी से निभाया !–“” इस महान विभूति को आज उनके जन्मदिन के अवसर पर शत्-शत् नमन”” ।
– सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”