शोभना शर्मा। जयपुर के आमेर क्षेत्र से एक ऐसा मामला सामने आया है, जिसने सोशल मीडिया के उपयोग को लेकर गंभीर सवाल खड़ा कर दिया है। एक पिता की मृत्यु के बाद दादा-दादी के साथ रहने वाले दो बच्चों को लेकर कस्टडी विवाद में तब्दील हो गया था यह मामला, जब पाया गया कि दादा-दादी बच्चों के पिता के फोन का उपयोग करके उनके यूट्यूब वीडियो बनाते और अपलोड करते थे। इस घटना को देख अदालत ने अपनी चिंता जताई और हाईकोर्ट में सुनवाई के बाद एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया।
मामले की शुरुआत तब हुई जब 11 साल की एक बच्ची और 7 साल के उसके भाई को पिता की मौत के बाद दादा-दादी के पास रहने के लिए रखा गया। परिवार में अचानक कस्टडी को लेकर झगड़ा मच गया था। दादा-दादी ने बच्चों को अपनी देखभाल में लेने की कोशिश की और इस दौरान बच्चों के पिता के फोन का इस्तेमाल करते हुए बच्चे यूट्यूब पर वीडियो अपलोड करने लगे। अदालत में दर्ज याचिका में मां ने यह दावा किया कि दादा-दादी की इस लापरवाही के कारण बच्चों की सुरक्षा को गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है।
राजस्थान हाईकोर्ट में मां की अपील सुनी गई और न्यायाधीश पंकज भंडारी ने 21 जनवरी को एक निर्णायक फैसला सुनाया। न्यायाधीश ने बच्चों के यूट्यूब वीडियो और रील्स की जांच की और पाया कि बिना किसी निगरानी के इतनी कम उम्र की बच्ची का सोशल मीडिया का उपयोग करना न केवल असुरक्षित है, बल्कि साइबर अपराधियों के लिए भी यह एक आसान निशाना हो सकता है। अदालत ने कहा कि इस स्थिति में बच्चों की सुरक्षा सर्वोपरि होनी चाहिए और इसलिए मां को बच्चों की प्राकृतिक संरक्षक के रूप में प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
न्यायाधीश पंकज भंडारी ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि दादा-दादी की ओर से बच्चे के यूट्यूब अकाउंट चलाने और वीडियो अपलोड करने को गंभीर लापरवाही माना गया है। अदालत ने यह भी पाया कि बच्ची खुद से वीडियो रिकॉर्ड करती थी और अपने दादा-दादी के सामने ही उसे अपलोड कर देती थी, जबकि दादा-दादी इस बात पर कोई नियंत्रण नहीं रख पाते थे। मां के वकील ने अपनी दलील में बताया कि इस तरह के वीडियो अपलोड करने से बच्चों की निजता और सुरक्षा पर गंभीर प्रश्न उठते हैं, क्योंकि बिना किसी निगरानी के सोशल मीडिया का इस्तेमाल करना उन्हें साइबर अपराधियों के लिए आसानी से उपलब्ध करवा सकता है।
अदालत ने सुनवाई के दौरान जोर देकर कहा कि कम उम्र के बच्चों को सोशल मीडिया के उपयोग की अनुमति देना ख़तरनाक है। न्यायाधीश ने कहा कि यूट्यूब जैसे प्लेटफार्म पर वीडियो अपलोड करने से बच्चों को साइबर अपराधियों द्वारा निशाना बनाया जा सकता है। इसी कारण अदालत ने दादा-दादी के साथ रहने वाले बच्चों की कस्टडी दादा-दादी से छीनकर मां के हवाले करने का फैसला सुनाया। हालांकि, न्यायालय ने दादा-दादी को भी बच्चों से हर रविवार 5 घंटे तक मिलने की अनुमति दे दी है ताकि परिवार के संबंध बने रहें।
इस मामले में अदालत ने सामाजिक और कानूनी दोनों ही दृष्टिकोण से यह साबित किया कि बच्चों की सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। आज के डिजिटल युग में, जब मोबाइल फोन और इंटरनेट का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है, बच्चों को सोशल मीडिया के दुरुपयोग से बचाना अत्यंत आवश्यक हो गया है। अदालत का यह फैसला एक चेतावनी है कि बिना उचित निगरानी के छोटे बच्चों को सोशल मीडिया का उपयोग करने देना उनके लिए खतरनाक साबित हो सकता है।
समाज में इस मुद्दे पर पहले से ही व्यापक बहस चल रही है कि बच्चों को डिजिटल दुनिया में किस तरह से सुरक्षित रखा जाए। विशेषज्ञों का मानना है कि बच्चों के मोबाइल फोन और इंटरनेट के उपयोग पर कड़ाई से नियंत्रण रखा जाना चाहिए, खासकर तब जब वे कम उम्र के हों। साइबर अपराधी इन कम उम्र के बच्चों को निशाना बनाकर उनका दुरुपयोग कर सकते हैं, जिससे उनके शारीरिक और मानसिक विकास पर बुरा असर पड़ सकता है।
इस फैसले के बाद उम्मीद जताई जा रही है कि भविष्य में बच्चों की सुरक्षा के लिए और कड़े कदम उठाए जाएंगे। माता-पिता, दादा-दादी और देखभाल करने वाले सभी को यह समझना होगा कि बच्चों के डिजिटल उपकरणों का उपयोग करते समय उनकी सुरक्षा सर्वोपरि होनी चाहिए। साथ ही, सोशल मीडिया प्लेटफार्मों को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके कंटेंट मॉडरेशन के नियम बच्चों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए बनाए जाएं।
अदालत ने मां को बच्चों की प्राकृतिक संरक्षक घोषित करते हुए यह संदेश दिया है कि बच्चों की परवरिश में माता-पिता की भूमिका अनिवार्य है। इस फैसले से यह स्पष्ट होता है कि बच्चों की ऑनलाइन गतिविधियों की निगरानी न केवल उनकी निजता का मुद्दा है, बल्कि उनकी सुरक्षा का भी महत्वपूर्ण पहलू है। कोर्ट का यह कदम भविष्य में ऐसे मामलों में एक मिसाल कायम कर सकता है और समाज में बच्चों की ऑनलाइन सुरक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ा सकता है।