शोभना शर्मा। राजस्थान के पहले मुख्यमंत्री पंडित हीरालाल शास्त्री की 28 दिसंबर पुण्यतिथि है। उनकी जीवन यात्रा केवल राजनीति तक सीमित नहीं थी, बल्कि समाजसेवा और शिक्षा के क्षेत्र में भी उनके योगदान ने उन्हें एक अलग पहचान दी। जयपुर जिले के जोबनेर कस्बे में जन्मे पंडित हीरालाल शास्त्री ने न केवल राजस्थान के निर्माण में अहम भूमिका निभाई, बल्कि अपनी दिवंगत पुत्री की स्मृति में देश की बेटियों को वनस्थली विद्यापीठ जैसी प्रतिष्ठित संस्था का तोहफा दिया।
जयपुर राज्य सेवा से समाजसेवा का सफर
पंडित हीरालाल शास्त्री ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद जयपुर राज्य सेवा में कदम रखा। वे अपनी कार्यकुशलता के चलते गृह और विदेश विभाग में सचिव के पद तक पहुंचे। लेकिन, 1927 में उन्होंने सरकारी सेवा से इस्तीफा देकर समाजसेवा का मार्ग अपनाया। उनके इस कदम के पीछे समाज को बेहतर बनाने का उनका संकल्प था। इसी साल उन्होंने ‘जीवन कुटीर’ नामक संगठन की स्थापना की। इस संगठन का उद्देश्य समर्पित सामाजिक कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करना था। जीवन कुटीर के माध्यम से उन्होंने समाज के विभिन्न तबकों को साथ लाने और उनके उत्थान के लिए काम किया।
वनस्थली विद्यापीठ: पुत्री की स्मृति में बेटियों को शिक्षा का वरदान
1935 का साल पंडित हीरालाल शास्त्री के जीवन में एक गहरा धक्का लेकर आया। उनकी बेटी श्रीशांता का निधन हो गया। यह घटना उनके जीवन का एक निर्णायक मोड़ बन गई। उन्होंने अपनी बेटी की स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए शिक्षा के क्षेत्र में काम करने का संकल्प लिया। 6 अक्टूबर 1935 को उन्होंने टोंक जिले की निवाई तहसील में ‘श्रीशांता बाई शिक्षा-कुटीर’ की स्थापना की। इस शिक्षा-कुटीर की शुरुआत बेहद सीमित संसाधनों से हुई। न भूमि थी, न भवन और न ही वित्तीय सहायता। लेकिन, उनके दृढ़ निश्चय और प्रयासों के चलते यह शिक्षा-कुटीर बाद में वनस्थली विद्यापीठ के रूप में विकसित हुआ। आज, वनस्थली विद्यापीठ दुनिया की सबसे बड़ी महिला विश्वविद्यालयों में से एक है। यह न केवल भारत बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी महिला शिक्षा और सशक्तिकरण का प्रतीक बन चुकी है।
राजनीति में कदम और राजस्थान का पहला मुख्यमंत्री बनने का सफर
पंडित हीरालाल शास्त्री ने राजनीति में कदम 1937 में रखा। उन्हें जयपुर राज्य प्रजा मंडल के पुनर्गठन का जिम्मा सौंपा गया। प्रजा मंडल के महासचिव और अध्यक्ष के रूप में उन्होंने नागरिक स्वतंत्रता और जन अधिकारों के लिए आंदोलन किया। 1939 में उन्होंने प्रजा मंडल के सत्याग्रह का नेतृत्व किया, जिसके चलते उन्हें छह महीने की जेल भी हुई। आजादी के बाद 1947 में पंडित शास्त्री को ऑल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कॉन्फ्रेंस का महासचिव नियुक्त किया गया। उसी वर्ष, वे संविधान सभा के सदस्य बने और भारतीय संविधान के निर्माण में योगदान दिया। जब 30 मार्च 1949 को राजस्थान एकीकृत राज्य के रूप में स्थापित हुआ, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने उन्हें राजस्थान का पहला मुख्यमंत्री नियुक्त किया।
मुख्यमंत्री के रूप में चुनौतियां और इस्तीफा
पंडित हीरालाल शास्त्री का मुख्यमंत्री पद का कार्यकाल चुनौतियों से भरा रहा। गहलोत सरकार के शुरुआती दौर में जहां उनके अनुभव और दूरदर्शिता का लाभ राजस्थान को मिला, वहीं राजनीतिक खींचतान और विपक्ष के दबाव के चलते उन्हें दो साल के भीतर ही 1951 में इस्तीफा देना पड़ा। सरदार पटेल की मृत्यु के बाद उनकी दिल्ली में पकड़ कमजोर हो गई। नेहरू के करीबी माने जाने वाले मारवाड़ और जयपुर के कांग्रेसी नेताओं ने इसका भरपूर फायदा उठाया और पंडित शास्त्री को पद छोड़ने पर मजबूर कर दिया।
सक्रिय राजनीति में वापसी
मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद पंडित शास्त्री ने कुछ समय तक राजनीति से दूरी बनाई। लेकिन, 1957 में उन्होंने सवाई माधोपुर निर्वाचन क्षेत्र से दूसरी लोकसभा के सदस्य के रूप में राजनीति में वापसी की। इसके बाद भी वे जनसेवा के कार्यों में सक्रिय रहे।
समाज और शिक्षा के प्रति समर्पण
पंडित हीरालाल शास्त्री का पूरा जीवन समाज और शिक्षा के प्रति समर्पित रहा। उनके प्रयासों का ही परिणाम है कि राजस्थान में आज भी वनस्थली विद्यापीठ महिला शिक्षा और सशक्तिकरण का प्रतीक है। वनस्थली विद्यापीठ में शिक्षा का उद्देश्य केवल अकादमिक सफलता तक सीमित नहीं है, बल्कि यह महिलाओं को आत्मनिर्भर और समाज का नेतृत्व करने योग्य बनाने पर केंद्रित है।
विरासत और प्रेरणा
पंडित हीरालाल शास्त्री की विरासत आज भी भारतीय राजनीति और समाजसेवा के क्षेत्र में प्रेरणा का स्रोत है। उन्होंने न केवल राजस्थान के विकास में योगदान दिया, बल्कि महिला शिक्षा के क्षेत्र में भी एक नई दिशा दी। उनकी कहानी यह संदेश देती है कि चुनौतियों के बावजूद दृढ़ निश्चय और समर्पण से असंभव को संभव बनाया जा सकता है।